संबंध बहुत अच्छे लगते हैं और हम उनमें खो भी जाते हैं लेकिन समय के चक्र के साथ ये भी अपने रंग रूप आकार बदलते हैं। यह सब तो समय की परिकथा का एक भाग ही है लेकिन सबसे दुखद वे संबंध होते हैं जो समय के साथ अपनी नकली परत उतार कर अपने धातु का परिचय देते हैं। मुझे एक बार किसी ने कहा था, "मुखौटा अवश्य उतारकर कर देखना चाहिए, सच्चाई का रिस्क लेने का अपना मजा है" आनंदी नही हैं लेकिन उनके शब्द कितने सही थे न! सही में मुखौटा उतरने के बाद ......... लेकिन इसके लिए भी स्वीकार्यता विकसित करनी ही होगी। समय है और सभी अपने जीवन में अपने आदर्श लेकर चल रहे हैं। तो अपने में केंद्रित रहना यथोचित है और ईश्वर से ही अपने संबंध दृढ़ करना सर्वश्रेष्ठ साधन। जैसे बालक एक नाल के सहारे गर्भकाल में हो वैसे ही तो हैं हम, बस जुड़ना हमे परमात्मा से है और हम सृष्टि के गर्भ में हैं। इसकी पीड़ा और संवेदना और साथ ही अदृश्य परमात्मा की अनुभूति से जुड़ना ही उत्तम है और इसी में सुख भी है। ऋतु कौशल, यदि मेरा लेख अच्छा लगे तो कृपया मुझे बताएं kaushalreiki@gmail.com पर लिखे।